दिल्ली-एनसीआर में आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला, देशभर में मची बहस
लेखक: कुलदीप चौहान, DainikPadtaal.com
दिल्ली-एनसीआर की गलियों में घूमते आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा आदेश ने पूरे देश में एक नई बहस छेड़ दी है। यह सिर्फ एक कानूनी मामला नहीं, बल्कि सुरक्षा, मानवीय संवेदनाओं और शहरी व्यवस्था से जुड़ा बड़ा मुद्दा बन चुका है। कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि अगले छह से आठ हफ्तों में राजधानी और इसके आसपास के शहरों से सभी आवारा कुत्तों को हटाकर शेल्टर होम भेजा जाए।
क्यों आया यह फैसला?
सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश उस समय दिया जब दिल्ली में हर साल करीब 30,000 कुत्तों के काटने के मामले दर्ज हो रहे हैं। कई गरीब इलाकों में तो रेबीज़ जैसी जानलेवा बीमारी अब भी लोगों की जान ले रही है, क्योंकि वहां टीके और इलाज की सुविधाएं समय पर नहीं पहुंच पातीं।
CJI बी.आर. गवई ने सुनवाई के दौरान कहा कि यह मामला केवल जानवरों का नहीं, बल्कि इंसानों की जिंदगी की सुरक्षा का भी है। हालांकि उन्होंने यह भी संकेत दिया कि आदेश पर दोबारा विचार किया जा सकता है, क्योंकि इस मुद्दे पर कोर्ट की अलग-अलग बेंच पहले अलग-अलग राय दे चुकी हैं।
पशु प्रेमी बनाम परेशान लोग
जैसे ही आदेश आया, पेटा, मेनका गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका चतुर्वेदी समेत कई नेता और बॉलीवुड सेलिब्रिटीज सामने आ गए। उनका कहना है कि आवारा कुत्तों को उनके इलाके से उठाकर बंदी बनाना Animal Birth Control (ABC) Rules के खिलाफ है।
इन नियमों के तहत कुत्तों को पकड़कर नसबंदी और टीकाकरण करने के बाद वापस उसी इलाके में छोड़ना जरूरी है। दूसरी तरफ, आम लोग और खासकर झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके के निवासी कहते हैं—"हमारे बच्चे गलियों में खेलने से डरते हैं, कचरे में मंडराते कुत्तों का डर हर वक्त बना रहता है।"
कानून और जमीनी हकीकत का टकराव
समस्या यह है कि मौजूदा ABC नियम 2023 कहता है कि स्वस्थ कुत्तों को स्थायी रूप से हटाया नहीं जा सकता, जबकि कोर्ट का आदेश कहता है कि सभी आवारा कुत्तों को हटाकर शेल्टर होम में रखा जाए।
अगर नगरपालिकाएं कोर्ट के आदेश का पालन करती हैं, तो वे ABC नियम का उल्लंघन करेंगी। और अगर नियम का पालन करती हैं, तो कोर्ट की अवमानना का खतरा रहेगा। यह कानूनी खींचतान फैसले को और जटिल बना देती है।
लोकल एंगल – दिल्ली की गलियों की हकीकत
मैंने खुद, एक पत्रकार के तौर पर, दिल्ली के कई इलाकों में घूमकर देखा है कि गलियों में 5–10 कुत्तों के झुंड आम बात है। खासकर सर्दियों की सुबह और कचरा फेंकने के वक्त ये झुंड आक्रामक हो जाते हैं। कई बार लोग डंडा या पत्थर लेकर ही बाहर निकलते हैं।
मजदूर बस्तियों में तो कुत्तों के काटने के मामले में पीड़ित को न टीका समय पर मिलता है, न इलाज। यही वजह है कि स्थानीय लोग कोर्ट के आदेश को "राहत" की तरह देख रहे हैं।
विश्लेषण – केवल बंदी बनाना हल नहीं
मेरी राय में, यह मुद्दा सिर्फ कुत्तों को उठाकर शेल्टर में डाल देने से खत्म नहीं होगा।
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स्थायी समाधान के लिए बड़े पैमाने पर नसबंदी और टीकाकरण जरूरी है।
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नगरपालिकाओं को बेहतर शेल्टर और पशु चिकित्सक उपलब्ध कराना होगा।
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जो कुत्ते मिलनसार और गोद लिए जाने लायक हैं, उन्हें अडॉप्शन कैंपेन के जरिए घर दिलाना चाहिए।
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आक्रामक और लाइलाज बीमार कुत्तों के लिए मानवीय इच्छामृत्यु (Euthanasia) की व्यवस्था होनी चाहिए।
सोशल मैसेज – इंसान और जानवर, दोनों की सुरक्षा जरूरी
यह सच है कि कुत्ते भी जीव हैं, उनके साथ क्रूरता नहीं होनी चाहिए। लेकिन उतना ही सच यह भी है कि इंसान की जान सबसे पहले है। हमें संतुलित नीति बनानी होगी जिसमें
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इंसानों की सुरक्षा
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जानवरों की देखभाल
दोनों साथ चलें।
अगर हमने सिर्फ एक पक्ष को चुना, तो दूसरा पक्ष असुरक्षित रहेगा। यह मामला हमें सिखाता है कि मानवता केवल जानवरों के लिए दया दिखाने में नहीं, बल्कि इंसानों की जिंदगी की रक्षा में भी है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, चाहे अंतिम रूप में बदले या न बदले, एक चेतावनी है कि अब इस समस्या पर गंभीरता से काम करने का समय आ गया है। केवल कानूनी बहस में उलझने के बजाय, हमें शहरी योजना, पशु चिकित्सा और जनजागरूकता को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा।
दिल्ली-एनसीआर ही नहीं, बल्कि पूरे देश के शहरों में यह मॉडल लागू किया जाए, तो आवारा कुत्तों के आतंक से राहत मिल सकती है और इंसान-जानवर सहअस्तित्व का एक सुरक्षित रास्ता निकलेगा।
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